न मेरा नामोनिशां मिला

वे पटियाला राजपरिवार के वंशज और पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री नहीं हो सकते, क्योंकि वे सामान्यतया अपने नाम के साथ सम्मानसूचक उपाधियां जोड़ते थे। इसके अलावा वे पंजाब की गंदी राजनीति में इतने डूबे हुए हैं कि उनके पास 347 पृष्ठों की किताब के लिए शोध करने और लिखने का समय निश्चित ही नहीं रहा होगा।
मेरी सारी शंकाओं का समाधान अगले दिन ही हो गया, जब कैप्टन अमरिंदर सिंह, जिनके साथ एक बहुत प्यारी लड़की थी और जिसे मैंने उनकी बेटी समझ लिया व प्रकाशक प्रमोद कपूर किताब की एक प्रति के साथ आ पहुंचे। उनसे मेरा पहला सवाल था कि क्यों पटियाला राजपरिवार का एक वंशज नाभा, जींद, फरीदकोट और कपूरथला समेत सभी फुल्कियां रियासतों के संग अंग्रेजों के साथ खड़ा होने को तैयार हो गया ताकि खुद को महाराजा रणजीत सिंह द्वारा निगल लिए जाने से बचा सके।
रणजीत सिंह, जो हर उस जमीन के प्रति गहरी लालसा से भरे हुए थे, जिसे वे सिख साम्राज्य की वैध संपत्ति समझते थे। कैप्टन मुस्कराए और सिर्फ इतना ही बोले, ‘जवाब आपको किताब में मिल जाएगा।’ फिर मैंने उनसे पूछा कि किताब की सामग्री उन्हें कहां मिली? उन्होंने कहा, ‘कुछ साल ऐसे थे, जब मेरे पास करने को कुछ खास नहीं था। हमारे महल में एक विशालकाय लाइब्रेरी थी और चंडीगढ़ के पुस्तक संग्रह भी मेरी पहुंच से दूर नहीं थे।’
उनके जाने के बाद मैं अध्याय-दर-अध्याय किताब को बांचता रहा। जाहिर था कि पूरी सामग्री को क्रमवार संजोने के लिए उनके पास सहायक थे, लेकिन लेखन पूर्णत: मौलिक था। सेना के किसी व्यक्ति से जैसी अपेक्षा की जा सकती है, उन्होंने रणजीत सिंह की फौज का खासा ब्योरा दिया था। पैदल सेना, घुड़सेना और तोपखाने से लैस इस फौज में, सिख, मुस्लिम, डोगरा और गुरखा सैनिक शामिल थे, जिनकी कवायदों के लिए यूरोपियन अफसर तैनात किए गए थे।
उन्होंने एक संयुक्त पंजाबी लड़ाका फौज खड़ी करने में कामयाबी हासिल की थी, जो उस दौर में हिंदुस्तान में ब्रिटिश फौज के बाद दूसरी सबसे बड़ी सेना थी। मेरी जानकारी में किसी भी अन्य इतिहासकार ने इस विषय पर इतने विस्तार से नहीं लिखा है और न ही कोई अन्य इतिहासकार दो अंग्रेज-सिख युद्धों के दौरान हुई कई छोटी-छोटी लड़ाइयों के इतने ब्योरे दे पाया है। इस किताब में उन्होंने लड़ाई के मदान में उगने वाले दरख्तों तक के बारे में बताया है।
लेकिन किताब में कुछ महत्वपूर्ण चूकें भी हैं। लेखक ने पंजाबी में रणजीत सिंह की जीवनी और हाल ही के अंग्रेजी के दो प्रकाशनों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। इनमें से एक किताब पटवंत सिंह द्वारा लिखी गई है और यह सिख दरबार का खालसा संस्करण है। दूसरी किताब है रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की नवतेज सरना द्वारा लिखी गई प्रामाणिक जीवनी।
दलीप सिंह को वर्ष 1849 में ब्रिटिशों द्वारा सिख साम्राज्य का विलय कर लेने के साथ ही अपने संरक्षण में ले लिया गया था। बाद में उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। शराब और शबाब की आवारा जिंदगी बिताते हुए पेरिस में उनकी दुखद मौत हुई। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुझ पर भी इतनी कृपा नहीं दिखाई कि वे इस विषय पर मेरी किसी किताब का संदर्भ देते। न तो उन्होंने सिख धर्म के इतिहास पर मेरी दो जिल्दों का जिक्र किया, न ही रणजीत सिंह पर मेरे द्वारा लिखी गई जीवनी का। ये दोनों ही किताबें अमेरिका, इंग्लैंड और भारत में शीर्ष प्रकाशकों द्वारा छापी गई हैं।
उन्होंने अंग्रेज-सिख युद्धों के अंग्रेजी और पंजाबी में आए मेरे संस्करणों का भी कोई संदर्भ नहीं दिया। मुझे उनकी संदर्भ सूचियों और इंडेक्स तक में कोई जगह नहीं मिली है। मुझे यह दर्प था कि सिखों पर कोई भी किताब मेरी उपेक्षा करते हुए नहीं लिखी जा सकती है। वे मेरे इस दर्प को चूर-चूर करने में कामयाब हुए हैं।
हारूकी मुराकामी
मैंने तब तक हारूकी मुराकामी का नाम तक नहीं सुना था, जब एशियन बैंक मनीला में काम करने वाली ज्योत्सना वर्मा ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने उनकी कोई किताब पढ़ी है? जब मैंने उनसे कहा कि मैंने तो मुराकामी का नाम तक नहीं सुना तो वह बोलीं, ‘आप कुछ चूक गए हैं। उन्हें पढ़ना एक शानदार अनुभव है। मैं आपको उनकी कोई किताब भेजूंगी।’ उसी शाम मुझे अपने अपार्टमेंट में ‘ब्लाइंड विलो, स्लीपिंग वुमेन’ (विंटेज इंटरनेशनल) शीर्षक से लघुकथाओं का एक संकलन मिल गया।
एक दौर था, जब मैं जापानी फिक्शन की अंग्रेजी में अनूदित हर किताब पढ़ता था। मुझे स्वीकार करना होगा कि मैं उनमें से किसी भी उपन्यास या कहानी से पूरी तरह प्रभावित नहीं हुआ था। लेकिन मुराकामी को पढ़ना एक खोज की तरह था।
एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद मैं उन्हें छोड़ नहीं पाया। उनकी कहानियों के बारे में सबसे अद्भुत बात यह है कि उनमें वाकई कोई संदेश या कुछ सिद्ध करने की कोशिश नहीं है। मैं एक-एक कर उनकी कहानियां पढ़ता चला गया। उनमें एक कहानी एक ऐसे व्यक्ति के बारे में थी, जो हर बार तूफान के बाद किसी चिड़ियाघर की यात्रा करने चला जाता है। तो क्या? मैंने खुद से पूछा।
एक अन्य जोड़ा किसी नवजात कंगारू के बारे में पढ़ता है और यह तय करता है कि उन्हें उसके बड़ा होने और अपनी मां की थैली में चले जाने से पहले देख लेना चाहिए। एक माह बाद वे चिड़ियाघर की सैर करते हैं। नन्हा कंगारू विकसित कंगारुओं के साथ उछल-कूद कर रहा है और वह अपनी मां के थैले में जाकर अपने देखने वालों को उपकृत कर देता है। तो क्या? तीसरी कहानी एक युवा जोड़े की प्रेम और यौन ग्रंथियों के बारे में है, जो एक-दूसरे से विवाह नहीं करते, लेकिन बाद में पुन: एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं।
इस तरह इस कहानियों को पढ़ते हुए अंतत: पाठक खुद को ही खीझ से भरा हुआ पाता है। यह सिलसिला एक कहानी से दूसरी कहानी, लोगों और जगहों के सचित्र ब्योरों के साथ जारी रहता है। अंतत: आप फर्नीचर से बंधे गैस के गुब्बारे जैसे हवा में लटके रह जाते हैं। बहरहाल मुझे हारूकी मुराकामी की जितनी भी किताबें मिल सकती हैं, मैं उन्हें पढ़ डालने की कोशिश करूंगा।
भौंकना मना है
बंता का अपनी बीवी बंतो से झगड़ा हो गया। बंता चीखा, ‘तुमने मुझे कुत्ता कहा?’ बंतो ने कोई जवाब नहीं दिया। बंता फिर चिल्लाया, ‘तुमने मुझे कुत्ता कहा?’ बंतो चुप रही। बंता तीसरी दफे चीखा, ‘तुमने मुझे कुत्ता कहा?’। बंतो ने चीखते हुए जवाब दिया, ‘नहीं कहा, पर अब तो भौंकना बंद करो!’(सौजन्य : जेपी सिंह काका, भोपाल।)
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।
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