अमिताभ का बहिष्कार या दिवालियापन

[आशुतोष
मैनेजिंग एडिटर
लोग मुझे नरेंद्र मोदी का कटु आलोचक कहते हैं। लेकिन पिछले दिनों जब अमिताभ को कांग्रेस ने लपेट लिया तो अच्छा नहीं लगा। सवाल सिर्फ इतना सा है क्या इसी आधार पर कांग्रेस अमिताभ का बहिष्कार कर दे कि वो मोदी के साथ दिखे और गुजरात के ब्रांड एंबेस्डर बने? उनके साथ कांग्रेसी रिश्ता नहीं रखें? ये बात पचती नहीं क्योंकि बच्चन और नेहरू-गांधी परिवार 50 के जमाने से करीब रहे हैं। नेहरू जी हरिवंश राय और तेजी बच्चन की काफी इज्जत करते थे। इंदिरा गांधी के जमाने में तो ये भी कहा जाने लगा था कि अमिताभ का कैरियर ही सरकर की वजह से आसमान पर पहुंचा। लोग ये आरोप लगाते हैं कि इमरजेंसी के समय अमिताभ की फिल्मों पर खास मेहरबानी की गई। '84 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव के कहने पर अमिताभ ने हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ इलाहाबाद से चुनाव लड़ा। अमिताभ का जलवा और इंदिरा की मौत से उपजी सहानुभूति का असर था कि बहुगुणा जैसे दिग्गज खेत रहे और फिर कभी उठ नहीं पाये। जीतने के बाद अमिताभ राजीव के और करीब आ गये लेकिन जब बोफोर्स के संदर्भ में अमिताभ का नाम उछला और कांग्रेस ने खुलकर उनका साथ नहीं दिया तो अमिताभ ने राजनीति को अलविदा कह दिया। साथ ही नेहरू के जमाने से चली आ रही दोनों परिवारों की दोस्ती भी खत्म हो गयी।
राजीव के जाने के बाद दूरियां और बढ़ गईं। अमिताभ का बनारस में दिया गया वो मशहूर बयान अभी भी याद है कि राजा और रंक के रिश्ते में रंक नहीं राजा ये तय करता है कि उसे रिश्ता रखना है या नहीं। उनका इशारा सोनिया की तरफ था और फिर कभी दोनों परिवार करीब नहीं आये। मुसीबत के दिनों में अमर सिंह ने अमिताभ की मदद की, कांग्रेस ने नहीं। ये वो दिन था जब लोग कहते हैं कि अमिताभ खुदकुशी के बारे में भी सोचने लगे थे। ऐसे में अमिताभ अमर सिंह का हाथ पकड़ कर समाजवादी पार्टी के साथ हो लिये। और अमिताभ के बावजूद अमर सिंह और मुलायम सिंह ने सोनिया का मजाक उड़ाने का कोई भी मौका नहीं गंवाया। और अब अमर सिंह समाजवादी पार्टी से बाहर हैं तो अमिताभ अनायास ही मोदी के साथ खड़े दिख गये जिनको सोनिया मौत का सौदागर बता चुकी हैं। ऐसे में ये सोचा जा सकता है कि अमिताभ जाने अनजाने उस राह पर दिखे जो नेहरू-गांधी परिवार के विरोध में है। हालांकि अमिताभ ने इस दौरान कभी भी राजनीति में सक्रिय नहीं रहे, वो एक के बाद एक बेहतरीन फिल्में करते रहे। उनकी पर्सनैलिटी कभी भी राजनीतिक व्यक्ति की नहीं रही और न ही उन्होंने कभी सोनिया और उनके परिवार के खिलाफ कोई टिप्पणी ही की लेकिन गांठ जो बनी रही उसे दरबारियों ने खूब हवा दी। 2004 के बाद के सभी सरकारी आयोजनों से अमिताभ का बहिष्कार किया गया। अमिताभ को फिल्म फेस्टिवल तक से दूर रखा गया।
ऐसे मे अशोक चव्हाण जब बांद्रा वर्ली सी लिंक मे फंक्शन में अमिताभ के साथ दिखे तभी लग गया अब बवाल होगा। अमिताभ को भी अंदाजा था तभी तो फंक्शन के एक दिन पहले उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा कि कल मैं महाराष्ट्र सरकार के एक कार्यक्रम में जा रहा हूं और मीडिया इसमे भी मीन मेख निकालेगा। मीन मेख निकला लेकिन मीडिया ने नहीं कांग्रेस ने निकाला। कांग्रेस ने साबित करने की कोशिश की कि अमिताभ मोदी के साथ हैं इसलिये अछूत हैं और अशोक चव्हाण का उनके साथ मंच पर रहना गलत है। ये सब बकवास है मोदी के साथ होने को सिर्फ बहाना बनाया गया है। हकीकत मे दोनों परिवारों के बीच बीस सालों से ज्यादा की कटुता ही इस हो-हल्ले का कारण है और एक कमजोर थोड़े अनुभवहीन मुख्यमंत्री को उसकी औकात बतायी गयी है कि ज्यादा मत उछलो, नहीं तो धूल मे मिला दिये जाओगो।
साथ ही मोदी का नाम लेकर कांग्रेस ने अपने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को और पुख्ता किया है। कांग्रेस पिछले दिनों लगातार उत्तर प्रदेश और बिहार के मद्देनजर मुसलमानों को अपनी तरफ लाने की पुरजोर कोशिश में जुटी है। और गुजरात दंगों के कारण कांग्रेस की नजर मे मोदी से बड़ा कोई मुस्लिम विरोधी फिलहाल देश मे है नहीं। और कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से अमिताभ के बहाने मुसलमानों को संदेश दिया है कि जिसे वो मौत का सौदागर मानती है उसे वो कतई माफ करने को तैयार नहीं और वो कोई भी आदमी जो मोदी के साथ जुड़ेगा वो भी उनके लिये उतना ही बड़ा अछूत है चाहे वो कितना ही बड़ा शख्स क्यों न हो।
लेकिन क्या कांग्रेस के दरबारी इस सवाल का जबाव देंगे कि अगर अमिताभ अछूत हैं तो क्या गुजरात की वो जनता भी अछूत है जिसने मोदी को मुख्यमंत्री बनाने के लिये वोट दिया। क्या अमिताभ का नियम प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति और उनके उन मंत्रियों पर लागू नहीं होना चाहिये जो मोदी के साथ मंच शेयर करते हैं? क्या उस विधानसभा का भी बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिये जहां मोदी जाते हैं और बैठते हैं और जहां कांग्रेस के विधायक मोदी के साथ बहस मे हिस्सा लेते हैं? क्या उस सड़क का, उस बिल्डिंग का कभी निषेध नहीं कर देना चाहिये जहां मोदी रहते और गुजरते हैं? ये पागलपन है। और इसे खत्म होना चाहिये क्योंकि लोकतंत्र मे विचारों और विचारधाराओं का विरोध होना चाहिये, निषेध नहीं। और न ही निषेध होना चाहिये विरोधी विचारों और विचारधाराओं को मानने वालों का। ये लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। ऐसा तानाशाही में होता है। और हिंदुस्तान में तानाशाही नहीं है। इसलिये मोदी का कटु आलोचक होने के बाद भी मैंने कभी मोदी का बहिष्कार नहीं किया लेकिन राजनीति दूसरे तरह का खेल है
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